यशवंतरावजी चव्हाण व्यक्ति और कार्य -३८

भारत सरकारने जनवरी १९५६ को बम्बई विषयक जो निर्णय घोषित किया उसी का प्रतिपादन २७ मार्च १९५६ को बम्बई विधान सभा में तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री. मोरारजी देसाई द्वारा प्रस्तुत राज्य पुनर्गठन विधेयक में था । उक्त विधेयक के तृतीय वाचन के समय बम्बई नगर पर महाराष्ट्र के मूलभूत अधिकार का समर्थन करते हुए अकाट्य दलीलों के साथ यशवंतरावने जो भाषण दिया वह संयुक्त महाराष्ट्र विषयक उनकी निष्ठा और भावना किसी भी अन्य महाराष्ट्रीय के बनिस्बत अधिक तीव्रतर और बुद्धिमानी से युक्त थी यह सिद्ध करने के लिए काफी था । योग्य माँग मान्य न होने के कारण जो पीडा और व्यथा महाराष्ट्रीय-मन को पहूँची थी उसका स्पष्ट प्रतिबिंब हमारे चरित्रनायक के प्रत्येक शब्द से झलक रहा था । उन्होंने अपनी वेदना, दुःख बडी ही खूबी से और चतुरता से रखा था । उन्होंने व्यथित कंठ से अपने भाषण में कहा : ''बम्बई का स्थान कहाँ है, इसका प्रत्युत्तर हमें भौगोलिक परिभाषा में देना होगा । भौगोलिक दृष्टि से बम्बई महाराष्ट्र का ही अंग है ! और उससे किसीने इन्कार नहीं किया है । कभी कभी इतिहास बहुत सी बातें--तथ्य--छिपा कर रखता है लेकिन भूगोल हर्गिज नहीं रखेगा ।'' राज्य पुनर्गठन विधेयक पर विधानसभामें चर्चा चल ही रही थी कि ३ अप्रैल को पंडित नेहरूने एक अखबारी मुलाकात में बताया कि बम्बई की समस्या स्थायी तौर पर हल होगई है - ऐसी कोई बात नहीं । बल्कि भाषाई तनाव में ओट आने पर और राज्य शांति स्थापित होने पर पुनः इस समस्या पर विचार-विनिमय किया जाएगा । तप्‍त वातावरण शांत करने हेतु ही काँग्रेस संसदीय मंडल ने बम्बई राज्यमें अधिकारिक तौर से एक भी उपचुनाव न लडने का निर्णय लिया । राज्यपुनर्गठन विधेयक बम्बई विधानसभा में १४८ मत से पारित हुआ, २५ काँग्रेसी विधायकों ने विधेयक के विपक्षमें मतदान किया और ७२ विधायकों ने तटस्थ रह अपनी नापसंदगी प्रदर्शित की, जिसमें श्री भाऊसाहब हिरे और हमारे चरित्रनायक प्रमुख थे । यही विधेयक जब ३० जुलाई को भारतीय संसदगृह में प्रस्तुत किया गया तब श्री सी. डी. देखमुख को प्रत्युत्तर देते हुए पंडित नेहरू ने घोषित किया कि अगर आप मेरे सम्बंध में कहते हों तो बम्बई महाराष्ट्र में मिल जाने पर मुझे प्रसन्नता ही होगी । प्रत्युत जब कभी बम्बई शांत हो जायगी तब मैं स्वयं होकर ही बम्बई को महाराष्ट्र में मिलाने की वकालात करूँगा । फिर भी महाराष्ट्र काँग्रेस को समाधान न हुआ । उसमें रहे एक गुट की ऐसी मान्यता थी कि पंडित नेहरू की बम्बई केन्द्रशासित करने की योजना मान्य करने के बजाय सामूहिक रूपसे काँग्रेस तथा सरकार में रहे सभी अधिकार-स्थानों से त्यागपत्र देकर संयुक्त महाराष्ट्र की माँग स्वीकार न की - इस बात का अपनी कृति से निषेध करें । इस गुटका नेतृत्व श्री काकासाहब गाडगील, श्री भाऊसाहब हिरे एवं श्री कुंटे कर रहे थे, जब कि पंडितजीकी योजना असमाधानजनक होते हुए भी हमें राष्ट्रहितार्थ एवं महाराष्ट्र के कल्याणार्थ मान्य कर लेना चाहिए क्योंकि वह योजना हम लोगों के प्रदीर्घ विचार-विमर्श में से ही पैदा हुई है - इस गुट का नेतृत्व हमारे चरित्रनायक जैसी युवा-शक्ति के हाथ में था । पारस्परिक मतभेदों का निवारण कर सर्व सम्मति से किसी योजना को ठोस रूप प्रदान करने का निश्चय कर १५ जून को पूना में महाराष्ट्र के सभी जिला काँग्रेस समितियों के अध्यक्ष तथा मंत्रियों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया । दूसरे दिन अर्थात् १६ जून को प्रदेश काँग्रेस कार्य समिति की प्रातः ४ बजे तक सभा चलती रही । कोई बात निश्चित न हो सकी । महाराष्ट्र काँग्रेस में खुले तौर से फूट पड गई थी । दीर्घावधि की परंपरा भंग हो गई । १७ जून की महाराष्ट्र प्रदेश काँग्रेस की सामान्य सभामें श्री भाऊसाहब हिरे ने 'बम्बई, बेलगाँव, कारवार सह सारे मराठी भाषी प्रदेश का संयुक्त महाराष्ट्र में समावेश कराने के लिए, आम जनता को साथ ले संविधानिक पद्धति एवं प्रजातंत्रीय तरीकों का अवलम्बन कर अपनी माँग पूर्ति हेतु समस्त अधिकार स्थानों का परित्याग करना ही इष्ट है--ऐसा जिन काँग्रेस जनों को अनुभव होता है उन्हें अपने अधिकार स्थानों से त्यागपत्र देने की अनुमति यह सभा देती है ।' ऐसा प्रस्ताव रखा । इस पर 'अधिकार स्थानों के परित्याग की कलम रद्द कर दी जाएँ ' ऐसी उपसूचना अहमदनगर के श्री बालासाहब भारदे ने रखी जिसका समर्थन यशवंतरावने किया । काफी चर्चा और वाद-विवाद के पश्चात् मूल प्रस्ताव ६६ विरुद्ध ५६ के मतदान से पारित हुआ । लेकिन अंत तक अधिकार-त्याग की बारी किसी पर नहीं आई । केवल फूट ही बढती गई । यशवंतराव के आत्मिक क्लेष का पारावान न रहा । जिन्हें ज्येष्ठ भ्राता समझ कर राजकीय क्षेत्र में सदा जिनके कंधे से कंधा भिडा कर कार्य किया, महाराष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति और विकास के जो सहयोगी बन कर रात-दिन कार्यरत रहे, महाराष्ट्र के बुरे और अच्छे दिनों में जो दोनों राम-लक्ष्मण की तरह साथ रहे, ऐसे राम श्री भाऊसाहब हिरे के नेतृत्व का प्रत्यक्ष विरोध करने की बारी सदा-सर्वदा एकनिष्ठ रहे लक्ष्मण यशवंतराव पर आई और महाराष्ट्र एवं भारतभू के हितार्थ उन्होंने इसे संजीदगी के साथ निभाया । फिर भी उनके मन में भाऊसाहेब हिरे के प्रति कभी दुर्भावना या अनादर की भावना निर्माण न हुई । वे आज भी श्री हिरे को उतना ही महत्व प्रदान करते हैं जितना पहले करते थे ।

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